संहिता अग्रवाल – असली महिला सशक्तिकरण का उदाहरण

एक बेटी (संहिता अग्रवाल) ने साबित कर दिया कि समाज के और उसके परिवार के सदस्यों की आलोचनाओं के बावजूद वह अपनी मां के लिए जो प्रेम रखती है, वह अद्वितीय है, जब उसने अपनी विधवा मां की पुनर्विवाह की मदद की। संहिता की हिम्मत को  सलाम जिन्होंने समाज को एक नई दिशा दी | समाज को आप पर गर्व होना चाहिए | आज वही चार लोग उनकी प्रशंसा कर रहे है जो विधवा महिला पुनर्विवाह के खिलाफ थे |

 

बदलते स्वरूप में मानव वैश्विक हुआ है और उसकी जरूरत भी वैश्विक है और विवाह भी अब व्यक्ति की स्वतंत्रता से संबंधित है और चूँकि अब संवैधानिक आधार पर भी विधवा महिला पुनर्विवाह को मान्यता है | और यह व्यक्ति को मूल अधिकार भी है | लेकिन समाज का बड़ा तबका आज भी इसका भयंकर विरोध करता है |

वर्तमान विज्ञान के युग में तार्किकता भी उतनी ही जरूरी है जितने धार्मिक आधार | 5-10 हजार साल पहले जब व्यक्ति विकास कि अवस्था में शिशु था उस समय कि प्रथाओं को अगर हम आज भी तार्किक नही सोचे तो फिर इस विज्ञान के युग का अपमान कर रहे है | एक तरफ हम पश्चिमी दुनिया कि भौतिकता का अनुसरण करते नजर आते है तो दूसरी तरफ अनगिनत आडम्बरो को मानते है ,आखिर क्यों हम खुद को तार्किकता कि सीढ़ी के आखिरी पायदान पे रखे हुए है जबकि पश्चमी दुनिया इन दिखावटी आडम्बरो से कोसो दूर है ??

स्वामी विवेकानंद जी ने भी कहा था कि “अगर हम तर्क और धर्म का मिश्रण नही करेंगे तो पश्चिमी दुनिया से बहुत पीछे रह जाएँगे “|हमे वर्तमान को स्वीकार कर तार्किकता से समझने कि जरूरत है | माननीय सुप्रीम कोर्ट ने विधवा महिला पुनर्विवाह को स्वाकारोक्ति दी है ,जब भारत कि सर्वोच्च संस्था हमे यह करने से नही रोकती तो कि आधार पर यह अनुचित है ?

हमे समझने कि आवश्यकता यह है कि समाज कि चलाई गई कोई भी रीति हर देश काल परिस्तिथि में मानी रहे ऐसा जरूरी नही है क्यूंकि विरोध होना लाजमी है –सती प्रथा, बाल विवाह , छुआछूत जैसी अनेक कुप्रथाएँ हमारे समाज में व्याप्त थी लेकिन उनको दूर करने का प्रयास किया गया क्यूंकि उनसे समाज को भी नुक्सान था और यह बात समाज को भी पता थी थी लेकिन उसका विरोध करने या उस कुप्रथा को समाप्त करने कि जिम्मेदारी कोई उठाना नही चाहता था और जिस किसी ने इन कुप्रथाओं को समाप्त करने कि सोची उनका ना सिर्फ विरोध हुआ बल्कि उन्होंने बहुत कुछ सहा भी लेकिन अंतत: वो उन्हें समाप्त करवाने में सफल हुए और आज समाज उन्हें पूजता है | आज लिव इन रिलेशनशिप ,समलैंगिकता ,विधवा महिला पुनर्विवाह, या बिना विवाह के रहना आम बात हो गई है जिसे पहले हेय दृष्टि से देखा जाता था लेकिन अब समाज ने ना सिर्फ स्वीकार किया है बल्कि प्रोत्साहित भी किया है

कुछ ही बर्षो पहले इनका विभिन्न रूपों से समग्र विरोध होता रहा है इसलिये समसामयिक युग में हमे तर्कसंगत होने के साथ बदलाव के प्रति सहमत भी होना चाहिये | तो खुले दिमाग से सोचे तो हर बात में तर्को को वरीयता दी जाए तो आपका विरोध हो सकता है लेकिन आपका उद्देश्य गलत नही है और अगर आप ऐसा करते है तो निश्चय ही आप समाज कि एक उस अतार्किक प्रथा को समाप्त करने जा रहे हो जिससे समाज को नुक्सान होता है |

विधवा महिला पुनर्विवाह परिपक्व और वैश्विक समाज की उस निखरती धुप के समान है जिसमे समाज आलोकित हो सकता है | तर्क, विज्ञानं, धर्म, संस्थाएं, सरकारे, माननीय उच्चतम न्यायालय आदि सभी इसके पक्ष में है तो फिर हम संकुचित विचारधारा को बढ़ावा देकर इसे अनुचित नही कह सकते, इस बुद्धिजीवी समाज को सोचने कि महती आवश्यकता है जिसमे ना सिर्फ स्वतंत्रता को वरीयता दी जाये बल्कि व्यक्ति के अधिकारों को भी सम्मानजनक देखा जाये.

बदलते तार्किक और जिम्मेदार समाज मे मानवीयता और निजी स्वतंत्रता से सरोकार रखती हुई सोच की मिसाल पेश की है संहिता अग्रवाल ने । लगता है पश्चिम के अंधानुकरण की बजाय विवेकानंद जी के पश्चिमी तर्क का आना शुरू हो गया है ।।

— राष्ट्रीय युवा दिवस और विवेकानन्द जयंती की शुभकामनाये : Anil Sapotra